साल 2001 भयंकर उद्विग्नता से भरा हुआ था. इकोनॉमिक्स में M.A. कर लिया था. पी.एच.डी करूँ या सिविल की तैयारी करूँ. नेट का एग्जाम था. कुछ भी करने से जल्दी नौकरी मिलने की कोई गुंजाईश नहीं दिख रही थी. घर से दबाव था वो अलग. बोले कुछ नहीं तो बी.एड. ही कर लो. मुझे ये भी पता नहीं लग पा रहा था कि असल में मैं करना क्या चाहता हूँ. मैं इतना फ्रस्ट्रेट और कंफ्यूज था कि मैंने बी.एड. के एंट्रेंस एग्जाम में जान-बूझकर कई जवाब गलत किये ताकि नेगेटिव मार्किंग हो जाये मेरा न हो. 7-8 नंबर कम रहे और नहीं हुआ. इसके बाद अपनी बेवकूफी पर इतना गुस्सा आया कि फूट-फूट कर रोया उस दिन.
पी.एच.डी. की तैयारी शुरू हुई और उसी बीच मुझे एक रिसर्च प्रोजेक्ट मिला जो RBI के लिए था. उस प्रोजेक्ट को करते-करते एक चीज समझ में आई कि मैं ऐसा कुछ करना चाहता हूँ जहाँ लोगों से मिलना हो, अपनी बात समझानी हो और उनकी सुनकर कुछ स्ट्रेटेजी बनानी हो. किसी ने कहा MBA क्यों नहीं करते?
नवम्बर 2001 का महीना था और मैंने सारे अच्छे कॉलेज के बारे में पता किया तो समझ में आया कि यहाँ एडमिशन कैट के जरिये होगा और कैट के तो फॉर्म कब के भरे जा चुके और कुछ दिनों में परीक्षा है. यानि अब मैं अगले साल कैट दे सकता था जिसका मतलब ये हुआ कि एडमिशन 2003 में होगा. मेरे पास ये एक एक्स्ट्रा साल नहीं था. अब दो आप्शन थे MAT और RMAT (राजस्थान यूनिवर्सिटी का). मैंने एक साल और इंतजार करने की जगह इन परीक्षाओं के जरिये किसी सामान्य इंस्टिट्यूट से मैनेजमेंट करना चुना. लेकिन इस बीच पापा दो कारणों से इसके खिलाफ हो गए क्योंकि उन्हें इस फील्ड की समझ नहीं थी और आर्थिक रूप से हम काफी बुरी स्थिति में थे. उस उम्र में न जाने क्यों लड़के बस पापा के विरुद्ध विद्रोह किये होते हैं. मैं भी वैसा ही था और एंग्री यंग मेन बन के लग गया MAT की तैयारी में. RBI के प्रोजेक्ट से मिले पैसे से कोचिंग की फीस भरी और साथ में एक स्कूल में पीटीआई की नौकरी 2500 रु. महीने में.
जब रिजल्ट आया तो दोनों ही परीक्षाओं में काफी अच्छी पोजीशन थी. मैंने राजस्थान का कोर्स आर्थिक स्थिति के कारण चुना पर बाप ने कभी बच्चों को छोड़ा है. उन्होंने कहा कि बाहर जाओ और पैसे का मत सोचो. एजुकेशन लोन ले लेंगे. लेकिन इस बार मैंने पापा की तरफ से सोचा और एमिटी को उसकी भारी फीस की वजह छोड़ा और मोदीनगर MBA करने पहुँच गया. लोगों ने मना किया और कहा कि इन mediocre कॉलेज वाले कहीं नहीं जा पाते. पर मैंने सुना था कि कॉर्पोरेट में घुसने के बाद आपकी मेहनत और समझ कि वैल्यू होती है. मैं घुस गया और जो मेहनत से जी नहीं चुराया.
परिस्थितियां हमेशा पक्ष में नहीं होती पर वक़्त बदलता है. मेहनत का फल मिलता है ये भी सुना था पर देखा भी. वक़्त पलटा, पद पैसा मिला. 2-3 साल पहले तक लगता था कि अगर किसी बड़े कॉलेज से पढ़ा होता तो इतनी मेहनत में कुछ सीढियां और ऊपर होता लेकिन अब ऐसा नहीं लगना बंद होने लगा है क्योंकि ये सीढियां दरअसल ख़त्म होती ही नहीं हैं.
अब पिछले कुछ सालों से मैं उन इंस्टिट्यूट में बच्चों को मार्केटिंग के बारे में बताने जाता हूँ जिनके मैं फॉर्म इसलिए नहीं भर पाया क्योंकि कैट के लिए देर हो चुकी थी. खैर, देर आये दुरुस्त आये. इतना ही जानता हूँ कि परिस्थितियों से घबराइए मत. ये हमेशा एक सी नहीं रहती. आज पक्ष में नहीं तो कल होगी.