विष्णु भगवान के यहाँ बैठकी लगी हुई थी. मोहम्मद साहब के साथ विष्णु इस बात पर विमर्श कर रहे थे कि ये हमारे भक्त लड़ किस बात के लिए रहे हैं. हम सब के धर्म का सिलेबस तो एक ही है. सारे चैप्टर भी एक जैसे ही हैं फिर इन्होने अलग क्या खोज लिया है धर्म में.
“ऐसा तो नहीं कि भाषा अलग होने से समझ ना पा रहे हों एक दूसरे को?”
“भाषा पर ही कौन सा इकट्ठे हैं ये लोग? हिंदुस्तान में तो अभी अपने ही देश की भाषा पर लड़ रहे थे.”
समाधान क्या हो इसपर विचार हो ही रहा था कि लक्ष्मी जी ने पूछा – “बोयज़, गोलगप्पे? अभी अभी पृथ्वी लोक से मंगाये हैं…”
“अरे, गोलगप्पे के लिए भी कोई पूछता है क्या? ले आइये…” मोहम्मद साहब ने कहा.
“एग्जेक्ट्ली… फटाफट लाओ” – विष्णु जी भी शैया से उठ कर मुस्कुराते हुए बैठ गए.
गोलगप्पे बीच में रखे गए और दोनों लोगों ने चटखारे लेकर खाना शुरू किया. दोनों को चटखारे लेकर खाते देख अचानक लक्ष्मी जी को आईडिया सूझा और बोली – “कैसा हो कि हम लोग गोलगप्पे को धर्म बना दें? हर किसी को गोलगप्पे पसंद हैं. सोचो ऐसी चीज धर्म हो तो कैसा हो. समझने में आसान, सबको पसंद, कोई लड़ाई ही नहीं होगी. क्या मर्द क्या औरत… क्या हिंदू, क्या मुसलमान, क्या बच्चा, क्या बूढा… क्या खाना चाहिए क्या नहीं, इस पर लड़ने की जगह एक साथ चटखारे लेकर खायेंगे.”
दोनों ने लक्ष्मी जी को तारीफ भरी नज़र से देखा और कहा – “क्या आईडिया है… वैसे भी धर्म के नाम पर चटखारे ही तो लिए जा रहे हैं.”
उस रात पंडित जी को सपने में भगवान आये और ऐसा ही कुछ मौलवी साहब के साथ भी ऐसा ही हुआ और उन्होंने सुबह होते ही सबको नए धर्म के बारे में ऊपरवाले का फरमान बता दिया.
अगला दिन अद्भुत था. लोगों ने उठकर गोलगप्पे को याद किया. जो पंडित मुसलमान को देख भाग खड़ा होता वो उसी के हाथ से गोलगप्पा खा रहा था, जो मुसलमान हलाल झटका के चक्कर में किसी हिंदू के घर ना खाता वो उसके साथ एक ही दोने में गोलगप्पे खा रहा था. एकता इतनी हो चली थी कि गोलगप्पा खाने के बाद सूखी वाली ना देने पर सब इकट्ठे आवाज़ उठाते और गोलगप्पे वाले पर दबाव बनाते.
गोलगप्पे वाला अब एक पिछड़ा आदमी नहीं था. उसे समाज में वही प्रतिष्ठा मिल रही थी जो पंडित या मौलवी को मिलती है. सभी लोगों द्वारा गोलगप्पे को धर्म मानने से दोना बनाने का व्यवसाय बढ़ा. लोग पकोड़ा तलना छोड़ दोना बनाने लगे जिसमें गोलगप्पे खाए जा सकें.
वन्देमातरम गाना है या नहीं, हिंदी बोलनी है या नहीं ये सब मामला रहा ही नहीं. हिंदू-मुसलमान, उत्तर-दक्षिण सब एकमत थे. सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन दिक्कत ये हुई कि नेताओं पर अब सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को पूरा करने का दबाव पड़ने लगा. पंडित और मौलवी को अब कोई पूछ नहीं रहा था. इन लोगों की आपस में बैठकें शुरू हुई.
एक दिन दक्षिण से आवाज़ उठी कि उत्तर वाले गोलगप्पे में आलू डालते हैं जबकि स्वाद छोले डाल कर ज्यादा आता है. उत्तर वालों ने भी उत्तर दिया कि दक्षिण वाले क्या जानें आलू का मजा. इनका बस चले तो सांभर भरके गोलगप्पा खा लें.
कम्युनिस्ट भी धर्म के इस प्रभाव से विचलित हो उठे थे. उन्होंने मुद्दा उठाया कि सूजी का गोलगप्पा 10 रुपये का 3 और आटे का 10 रुपये का 4 क्यों? सूजी का गोलगप्पा बुर्जुआ प्रतीक है, इसे ध्वस्त किया जाये.
इतना हो ही चुका था लेकिन असली खेल बाकी था. एक आवाज़ उठी कि गोलगप्पे के साथ हरा पानी क्यों तो दूसरी तरफ मीठी चटनी के रंग के खिलाफ फतवा जारी हुआ. जनता मीठी चटनी और खट्टे पानी के बीच भिड़ने लगी. एक वर्ग पूछने लगा कि इस पानी का रंग भगवा नहीं हो सकता तो दूसरा मीठी चटनी में धनिया पत्ता मिलाकर उसे हरा रंग देने में लगा था.
धरती एक बार फिर पहले जैसी हो चुकी थी. चटनी के रंग के आधार पर गोलगप्पे वाले मारे जा रहे थे. सूजी का गोलगप्पा अब क्लास में आ चुका था (जैसे अंग्रेजी) और आटे का गोलगप्पा हिंदी मीडियम टाइप. इनका वर्गभेद का झगड़ा बन चुका था. दक्षिण में गोलगप्पे में आलू डालने वाले को भैया बोलकर पीटा जाता तो उत्तर में छोले डालने वाले को मद्रासी कहा जाता.
विष्णु भगवान के घर बैठकी फिर लगी हुई थी. तीनों ही बहुत चिंतित थे धरती की स्थिति देखकर. इसी बीच लक्ष्मी जी ने खाना परोसा. खाने में थी टिंडे की सब्जी जिसे देखते ही तीनों के चेहरे बन गए.
लक्ष्मी ने दोनों का चेहरा देखा और कहा – “धर्म को फिर बदलने का समय है. इस बार धर्म बनाओ टिंडे को.”
“टिंडा?” – दोनों ही आराध्यों ने चकित होकर पूछा.
लक्ष्मी बोली – “हाँ, टिंडा होगा नया धर्म और वो इसलिए कि ये इन्सान प्यार की बजाय नफरत में ज्यादा यकीन रखता है. गोलगप्पा प्यार था उसमें भी इन्होने नफरत घुसा दी लेकिन टिंडा सबके लिए नफरत है. ये लोग उसमें क्या घुसायेंगे. इन्हें एक दूसरे से नहीं, बल्नकि अपनी नफरत से नफरत ही करने दो.”
अब धरती का नया धर्म टिंडा है.
लेखक की तरफ से एक निवेदन: कृपया धर्म को अपने घरों में कैद कर दें, उन्हें निकल कर सड़क पर ना आने दें. सड़क पर आज आम आदमी, बहू-बेटियां सुरक्षित नहीं तो आपका हमारा धर्म कैसे सुरक्षित रहेगा?
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